ओशो का वक्तृत्व, भाषा पर असाधारण प्रभुत्व

कुछ 2000-2001 की बात होगी। ट्रेन से भोपाल से शहडोल जा रहा था। जबलपुर स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो बाहर प्लेटफॉर्म पर हाथ गाड़ी पर एक किताबों की दुकान नजर आ गई। तब तक मैं ओशो की दो चार पुस्तकें पढ़ चुका था। उनकी शैली, भाषा और उनके निरालेपन ने आकर्षित किया था। यहां हाथ गाड़ी पर उनकी कुछ पुस्तके रखी थीं। मैने एक छोटी पुस्तक उठा ली। कवर देख लगा था कि भगवान कृष्ण पर कहे गए प्रवचन है। पुस्तक पढ़ना शुरू की तो पता चला भगवत गीता के कुछ श्लोकों पर भाष्य था। अत्यन्त प्रभावशाली। अब तक गीता पढ़ने के कुछ प्रयास कर चुका था, परन्तु कईं विरोधाभास से नजर आते थे और कोई समझाने वाला था नहीं। ओशो ने जिस तरह ये श्लोक समझाए थे, वह बिलकुल ही भिन्न कोण थे। पहली बार ऐसा लगा कि गीता जी का आशय समझ आ रहा था।

कुछ वर्षों बाद इंदौर में लगे एक पुस्तक मेले में जाना हुआ। वहां गीता दर्शन के आठ भाग, लगभग सभी 450 पृष्ठों के, उपलब्ध थे! तब पता चला कि ओशो ने, सम्भवतः 1969 में, अहमदाबाद में गीता जी पर लगभग 300 घंटों के प्रवचन दिए थे जिनमें उन्होंने गीता जी के अठारह अध्यायों की श्लोक दर श्लोक व्याख्या की थी। इस व्याख्यान माला का शीर्षक गीता दर्शन दिया गया था। अद्भुत साहित्य है। ओशो का वक्तृत्व, भाषा पर असाधारण प्रभुत्व, शब्दों के परे और पंक्तियों के बीच छुपे इशारों को खोजती उनकी विलक्षण मेधा, गीता जी के सूत्रों के पीछे का परिपेक्ष सब कुछ चमत्कृत कर देने वाला था। अब तो जो पढ़ा वह सब अत्यन्त सतही नजर आने लगा। यह समझ आ गया कि इस साहित्य से परे कुछ नहीं है।

और कुछ समय बाद इन प्रवचनों की CD भी प्राप्त हो गई। और अब करीब 16 GB के डाटा के रूप में पेन ड्राइव भी! जैसा समय मिला पढ़ना, सुनना, उस पर चिंतन करना जारी रहा। आज मैं निसंकोच कह सकता हूं कि इन प्रवचनों को पढ़ने, सुनने से पूर्व मैं एक अलग व्यक्ति था। आज अलग हूं। इन प्रवचनों ने चेतना के स्तर पर तो प्रभावित किया ही, मानसिक रूप से कहीं अधिक दृढ़ भी बना दिया। आज लगभग 15 वर्षों के बाद भी ये प्रवचन उतने ही प्रेरक, रोचक और पाथेय बने हुए हैं। निश्चय ही मूल सन्देश तो स्वयं भगवान का है। परन्तु अपनी साधारण समझ से भगवान द्वारा प्रेषित जटिलताओं को समझना इस जन्म में तो संभवतः हो नहीं पाता। ओशो ने जिस प्रकार उन जटिलताओं को खोल कर समझाया है वह उनका हम सब पर उपकार ही कहलाएगा।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि विगत शताब्दी ने जिन श्रेष्ठतम प्रतिभाओं को जन्म दिया, ओशो उनमें से एक थे। यह दुखद है कि सामान्यतः उनका नाम सेक्स गुरु के रूप में ही लिया जाता है और उनकी यही छवि जन मानस में बना दी गई है। मैंने उनका काफी साहित्य पढ़ा है। मैं इसे तीन भागों में देखता हूं। शुरुआती वर्षों के उनके प्रवचन जिसमें गीता दर्शन, अष्टावक्र महा गीता, महावीर वाणी आदि प्रमुख हैं। यह अदभुत साहित्य है। मुझे लगता है यही उनकी पहचान होना चाहिए। दूसरे भाग में उनके कईं प्रवचन भारत के साधु सन्त, फकीर आदि पर है। इनमें से भी अधिकांश संग्रहणीय है। गोरख नाथ, कबीर, मीरा आदि के साहित्य को वे जिस दृष्टि से देखते है, उससे हमें इन सिद्ध व्यक्तियों को समझने में सहायता तो मिलती ही है साथ ही भारतीय मनीषा की गहराई और विलक्षणता भी स्पष्ट होती है।

अंतिम वर्षों के उनके प्रवचनों से ऐसा लगता है कि वे थोड़ा carried away हो गए थे, बहक गए थे। सम्भवतः दशकों तक स्वयं से कम प्रतिभा के लोगों से घिरे रहने प्रभाव रहा हो। स्वयं को भगवान घोषित करने और भक्तों द्वारा स्वयं को भगवान संबोधित करवा लेने में यह बहक जाना दृष्टि में आता ही है। इस दौर के उनके प्रवचनों में भी विद्वत्ता की जगह नाटकीयता ने ले ली थी। सम्भवतः वे अपना श्रेष्ठतम दे चुके थे और अब उनके पास नया कुछ देने के लिए बचा नहीं था।

मैने उन्हें कभी देखा नहीं, आमने सामने बैठ कर सुना नहीं, उनके किसी ध्यान केन्द्र पर गया नहीं हूं और न ही पुणे के उनके आश्रम में जाना हुआ है। ओशो से मेरा परिचय सिर्फ और सिर्फ उनके प्रवचनों के माध्यम से ही है और इसलिए अधूरा ही है। इसलिए उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं होगा। पर एक बात निश्चित है, अपने सैकड़ों प्रवचनों के माध्यम से उन्होंने जो अद्वितीय साहित्य रचा है, वह अनमोल है। उन प्रवचनों को पढ़ना या सुनना आपको एक बेहतर मनुष्य बना सकता है!

आज 11 दिसम्बर को ओशो की जन्म तिथि पर सादर स्मरण, नमन और हृदय से आभार।

श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर

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