एक-दूसरे के नजरिये को जानने और समझने का नाम है अनेकांत
भगवान महावीर के समय में चिंतन की एकीकृत धारा कई भागों में विभाजित थी। उस समय वैदिक एवं श्रमण परम्परा के अनेक विचारक विद्यमान थे और ये सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य को पूर्णत: जानने का दावा कर रहे थे। हर कथन में इस बात पर जोर दिया गया कि ‘केवल वह ही सत्य जानता है, कोई और नहीं।’ भगवान महावीर को आश्चर्य हुआ कि सत्य के इतने सारे दावेदार कैसे हो सकते हैं? सत्य का स्वरूप एक होना चाहिए।
ऐसे में उन्होंने अपने अभ्यास और अनुभव के आधार पर कहा कि सत्य उतना नहीं है जितना मैं देख रहा हूं या जान रहा हूं। यह वस्तु के एक गुण का ज्ञान है। वस्तु अनंत धर्मात्मक/ गुणात्मक है लेकिन व्यवहार में एक समय में उसका एक ही रूप हमारे सामने रहता है। बाकी विशेषताएं अनकही या छिपी रहती हैं। अत: वस्तु का प्रत्येक कथन सापेक्ष हो सकता है। इसी सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए भगवान महावीर ने अनेकांत का सिद्धांत दिया। अनेकांत एक ऐसा सिद्धांत है जो विभिन्न दर्शनों को आपसी टकराव से बचाता है। वस्तु (रियलिटी) को समझना जटिल है क्योंकि वह अनेक धर्मात्मक है।