रवींद्र भवन में स्‍वतंत्रता, समानता और विश्‍व-बंधुत्‍व के वैचारिक महाकुंभ का ‘उन्मेष’

'Unmesh' of the ideological Mahakumbh of freedom, equality and world-fraternity at Rabindra Bhavan

 

भोपाल। राजधानी के आसमान पर छाए बादल और दिन भर भिगोती रहीं फुहारों के बीच देश भर के कोने-कोने से लेकर धरती के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों से आए साहित्यकार जब रवींद्र भवन की छत के नीचे जुटे तो राजनीतिक सीमाएं परे छूट गईं। देश और विश्वभर के लिए साहित्य और संस्कृति की चुनौतियों से लेकर भाषा और भावों पर गहन विमर्श का दौर शुरू हो गया। लेखक, कवियों ने जिन भी मुद्दों पर चर्चा की, उसका केंद्रीय भाव रहा विश्व बंधुत्व, समानता, दूसरों की स्वतंत्रता के आदर के साथ ऐसे बेहतर समाज की रचना जो मनुष्यों के साथ-साथ पशु-पक्षियों, जीवों से लेकर प्रकृति के सहअस्तित्व को स्वीकार करता हो।

साहित्यकार जब डाक्टर होता है तब संवेदना के अलग स्तर पर होता है

चिकित्सक साहित्यकारों से एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है, साहित्यकार होना चिकित्सा में कैसे काम आता है। समाज में पत्रकार, इंजीनियर से लेकर प्रत्येक पेशे के लोग साहित्यकार होते हैं। ऐसे ही डाक्टर साहित्यकार होते हैं। जब कोई चिकित्सक साहित्यकार, चिकित्सक की भूमिका में होता है तब संवेदना के स्तर पर उपचार की चुनौतियों, जीवन बचाने के संघर्ष में मदद मिलती है। यह विचार चिकित्सकों का साहित्य सत्र में चिकित्सक साहित्यकारों ने साझा किए। सत्र का संचालन पंकज शुक्ला ने किया। अध्यक्षता प्रसिद्ध चिकित्सक उपन्यासकार ध्रुव ज्योति वोरा ने की। इस मौके पर डा. आरती बैलारी ने कहा कि चिकित्सा की पुस्तकों को पढ़कर पहले हमारे लेखन की शैली विवरणात्मक हुआ करती थी, मगर धीरे-धीरे जब साहित्य पढ़ना और फिर मनन कर लिखना शुरू किया तो हमारे लेखन में मानवतावाद आ गया और हम मानवीय पहलुओं पर लिखने लगे। मेरा प्रथम प्रेम चिकित्सा एवं साहित्य दोनों ही है। किसी एक को भी मैं अपने जीवन से नकार नहीं सकती।

दिल्ली के प्रो. ब्रजेश शर्मा ने कहा कि साहित्यकार के पास वह साहस होता है कि वो ज्वलंत मुद्दों पर भी अपनी लेखनी चला सकता है और वो कथाएं जो जन-जन में बसती हैं, उनको लोक के सामने ला सकता है। डा. अभिजीत तरफदर ने बताया कि चिकित्सक साहित्यकार के जीवन में साहित्य आस-पास से ही प्रस्फुटित होता है, क्योंकि वो प्रतिदिन न जाने कितनी जिंदगियों के बारे में करीब से जान पाता है। साहित्य से हम स्वयं को परिभाषित करते हैं और बेहतर इंसान बनते हैं।

हमें हमेशा विविधताओं का सम्मान करना चाहिए

कर्नाटक की डा. कावेरी नंबिसेन ने बताया कि एक शल्य चिकित्सक के हाथ में जहां एक जीवन की जिम्मेदारी होती हैं। वहीं साहित्यकार की लेखनी में जाने कितनी पीढ़ियों के जीवन की जिम्मेदारी होती है। हमें हमेशा विविधताओं का सम्मान करना चाहिए। साहित्य का चिकित्सक के जीवन में बहुत महत्व होता है। वरिष्ठ चिकित्सक एवं उपन्यासकार डा. ध्रुव ज्योति वोरा ने कहा कि हमारे जीवन का अनुभव हमें हमेशा प्रेरित करता है कि हम साहित्य के द्वारा सार्वभौमिक सच सभी के समक्ष प्रस्तुत करें।

जिन भाषाओं से देश की राजभाषा बनी उन्हें खारिज कर दिया है

‘मेरे लिए स्वतंत्रता का अर्थ? ’ सत्र में प्रसिद्ध राजस्थानी कवि, आलोचक अर्जुनदेव चारण ने कहा कि स्वंतत्रता एक ऐसा शब्द है। इसके अनुशासनों में अलग-अलग अर्थ मिलते हैं। 1947 के बाद हमारे देश में भाषा का परिदृश्य बना है उसमें बहुत सी महत्वपूर्ण भाषाएं एक तरह से हासिए पर डाल दी गई हैं। जिन भाषाओं से हमारी देश की राजभाषाओं का निर्माण हुआ है। वह भाषाएं इन 75 वर्षों में खारिज कर दी गई हैं। हम जब भी राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता की बातें करते हैं तो हमारे सामने एक बड़ा प्रश्न खड़ा किया जाता है कि इससे हिंदी का अहित होगा। भाषाओं से हम अपनी पहचान की बात करते हैं। आजादी के 75 वर्षों के बाद आज उन भाषाओं पर बात करना जरूरी हो गया है।

गांव में आजादी और स्वतंत्रता के शब्द नहीं थे

प्रसिद्ध कवि प्रयागराज के बद्री नारायण ने कहा कि जब मैं गांव में रहता था तब आजादी और स्वतंत्रता शब्द नहीं सुना था। वह शब्द हमारे जीवन में था ही नहीं। क्योंकि जीवन था, सोशल नार्म थे। उस आधार पर हम लोग काम करते थे। हर चीज की छूट थी। लेकिन स्वतंत्रता शब्द वहां के जीवन में नहीं था। जब हम शहर जाकर स्कूल में पढ़ने गए, तब वहां आजादी की लड़ाई और स्वतंत्रता शब्द सुनने को मिले। यह शब्द हमें पढ़ने के दौरान मिले। जो हमारे जीवन में आस्तित्विक शब्द नहीं थे। यानी जब हमारी चेतना जगती है तब हमें इस तरह के शब्दों की जरूरत होती है।

देश के क्षेत्रों में भाषाओं का नजरिया बदल जाता है

महाराष्ट्र से आए साहित्यकार शरणकुमार लिम्बाले ने कहा कि हिंदी का हित और अहित को लेकर हमेशा बहस होती है। मुझे लगता है कि हिंदी पट्टी में भाषा को लेकर उत्तर भारत और दक्षिण भारत का अलग-अलग दृष्टिकोण है। उत्तर भारत हिंदी को क्रेंद में रखकर सोचता है और दक्षिण भारत अंग्रेजी को। मैं मराठी का लेखक हूं और जब मेरी किताब हिंदी में आई तब मुझे लगा कि राष्ट्रीय भाषा में मेरी किताबें आई हैं तो मैं राष्ट्रीय लेखक बन गया हूं। लेकिन यह मेरा सोचना गलत था। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में भाषाओं का नजरिया बदल जाता है।

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