महान फिल्म निर्माता मणिरत्नम ने 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) के दौरान “साहित्यिक कृतियों को आकर्षक फिल्मों में बदलना” विषय पर आयोजित मास्टरक्लास में दर्शकों का मन मोह लिया। एक अन्य प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्देशक गौतम वी. मेनन के साथ एक व्यावहारिक बातचीत में, रत्नम ने साहित्य को सिनेमा में ढालने की कला पर गहन चर्चा की तथा फिल्म निर्माताओं और सिनेमा प्रेमियों दोनों के लिए बहुमूल्य सलाह दी।
बातचीत में मणिरत्नम ने विनम्रतापूर्वक कहा, “मैं अभी भी दर्शकों में बैठा एक आम इंसान हूं”, जो कहानीयों को बताने के प्रति उनकी आजीवन जिज्ञासा और जुनून को दर्शाता है। फिल्म निर्माण में माहिर होने के बावजूद उन्होंने कहा, “कई मायनों में मैं अभी भी एक नौसिखिया जैसा महसूस करता हूं।”
मणिरत्नम ने सिनेमा और साहित्य के बीच गहरे संबंध पर प्रकाश डाला और कहा कि “सिनेमा और साहित्य के बीच का ग्राफ जितना करीब होगा, भारतीय सिनेमा उतना ही बेहतर होगा।” साथ ही मणिरत्नम में इस बात पर भी जोर दिया कि फिल्म निर्माताओं को लिखे हुए शब्दों को आकर्षक दृश्य और कहानियों में बदलने की कला को निखारना चाहिए।
मणिरत्नम साहित्य को फिल्मों में ढालने की बारीकियों पर चर्चा करते हुए आगे कहते हैं, “फिल्में एक दृश्य माध्यम हैं, जबकि किताबें मुख्य रूप से कल्पनाशील होती हैं। एक फिल्म निर्माता को पाठक की कल्पना को जीवंत करने में अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए।” मणिरत्नम ने यह भी कहा कि स्क्रिप्ट में समायोजन की जरूरत हो सकती है, लेकिन इन बदलावों से कहानी का सार बदलने के बजाय कहानी को बेहतर बनना चाहिए।
मणिरत्नम ने इसी बातचीत में यह भी बताया कि वह पौराणिक कथाओं और प्राचीन भारतीय इतिहास से प्रभावित हैं। इन चीजों ने उनके दृष्टिकोण को बहुत प्रभावित किया है। इससे उन्हें अपनी फिल्म के पात्रों को अनोखे तरीके से दिखाने में कामयाबी मिली। उन्होंने एक सिनेमाई स्क्रिप्ट में अलंकृत साहित्यिक भाषा को ढालने की चुनौतियों पर टिप्पणी की, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि अभिनेता स्क्रिप्ट के साथ स्वाभाविक रूप से अभिनय कर सकें।
अपनी हालिया महान फिल्म ‘पोन्नियिन सेलवन’ के बारे में चर्चा करते हुए, जो कि कल्कि कृष्णमूर्ति के 1955 के इसी नाम के प्रतिष्ठित उपन्यास पर आधारित है, मणिरत्नम ने बताया कि फिल्म में चोल काल को दर्शाया जाना था, लेकिन तंजावुर में उस काल के सभी अवशेष पहले ही समय के साथ लुप्त हो चुके थे। चूंकि वह बहुत विस्तृत सेट नहीं बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने फिल्म की शूटिंग उत्तर भारत में करने की स्वतंत्रता ली और वहां की वास्तुकला को चोल काल की वास्तुकला जैसा स्वरूप दिया।
सिनेमा की सहयोगात्मक प्रकृति को रेखांकित करते हुए मणिरत्नम ने कहा, “एक निर्देशक के रूप में मेरा काम फिल्म में हर व्यक्ति को एक साथ लाना है, चाहे वह अभिनेता हो या क्रू मेंबर।”
मास्टरक्लास ने दर्शकों को समृद्ध अनुभव प्रदान किया, जिसमें रत्नम ने युवा फिल्म निर्माताओं से रचनात्मक स्वतंत्रता को सोच-समझकर उपयोग में लाने का आग्रह किया। उन्होंने युवा फिल्म निर्माताओं से पुस्तक की मूल भावना को संरक्षित करने के साथ-साथ उसे रूपांतरित करने के लिए अपनी अनूठी रचनात्मक शैली देने के लिए भी कहा।
यह मास्टरक्लास फिल्म निर्माता की निपुणता और विनम्रता का प्रमाण था और इसने दर्शकों में मौजूद सभी महत्वाकांक्षी कहानीकारों को साहित्य और सिनेमा की दो दुनियाओं के बीच सेतु बनाने के बारे में बहुत मूल्यवान सबक दिए।