इंदौर के शासकीय दंत चिकित्सा महाविद्यालय में चिकित्सा शिक्षा विभाग की लापरवाही और भेदभाव का गंभीर मामला उजागर हुआ है। आदिवासी कोटे से आने वाले असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुभाष सोनकेसरिया की वर्षों की मेहनत और उनके अधिकारों को विभागीय राजनीति का शिकार बना दिया गया है। एमडीएस डिग्रीधारी और 2006 से महाविद्यालय में सेवाएं दे रहे डॉ. सुभाष, नियमों के अनुसार प्रोफेसर के रिक्त पद पर पदोन्नति के पात्र हैं। लेकिन कथित रूप से चिकित्सा शिक्षा विभाग और महाविद्यालय प्रशासन उनकी पदोन्नति में अड़चनें पैदा कर रहा है।
चिकित्सा शिक्षा विभाग का भेदभावपूर्ण रवैया
चिकित्सा शिक्षा विभाग के डायरेक्टर और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करते हुए डॉ. सुभाष सोनकेसरिया बताते हैं कि उनकी पदोन्नति रोकने के लिए प्रभावशाली पदों का दुरुपयोग कर रहे हैं। डॉ. सुभाष ने शासकीय नियमों की सभी आवश्यकताएं पूरी की हैं, बावजूद इसके उन्हें जानबूझकर प्रोफेसर पद से वंचित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि यह केवल विभागीय लापरवाही नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय के अधिकारों की सीधी अनदेखी और अपमान है।
कोर्ट और अजाक्स की मदद भी बेअसर
डॉ. सुभाष ने न्यायालय में याचिका दायर कर न्याय की गुहार लगाई है। कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि इस मामले में कोई भी नियुक्ति से पहले अदालत को सूचित किया जाए। इसके बावजूद, चिकित्सा शिक्षा विभाग ने मामले को गंभीरता से नहीं लिया है। डॉ. सुभाष ने अजाक्स संगठन से भी सहायता मांगी है। अजाक्स ने विभागीय अधिकारियों के खिलाफ कड़ा कदम उठाने का आश्वासन दिया है, लेकिन विभाग की अनदेखी जारी है।
आदिवासी अधिकारों पर बड़ा हमला
यह मामला सिर्फ डॉ. सुभाष का नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय के अधिकारों पर बड़ा हमला है। यह सवाल खड़ा करता है कि क्या सरकारी संस्थान आदिवासी और वंचित समुदायों के लिए निष्पक्ष हैं? योग्य और मेहनती आदिवासी कर्मचारी को उसके अधिकार से वंचित करना केवल व्यक्तिगत अन्याय नहीं, बल्कि पूरे समुदाय के खिलाफ भेदभाव का प्रतीक है।
विभागीय राजनीति का घिनौना चेहरा
सूत्रों के अनुसार, शासकीय दंत चिकित्सा महाविद्यालय के दो वरिष्ठ प्रोफेसरों पर कथित रूप से आरोप है कि वे डॉ. सुभाष सोनकेसरिया की पदोन्नति को रोकने के लिए योजनाबद्ध तरीके से बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। इन वरिष्ठ अधिकारियों ने न केवल विभागीय प्रक्रिया में देरी की है, बल्कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर डॉ. सुभाष के खिलाफ माहौल बनाया है। प्रोफेसर के रिक्त पद पर विभागीय गुटबाजी और राजनीति का खेल साफ दिखाई दे रहा हैं। यह घटना चिकित्सा शिक्षा विभाग की पारदर्शिता और नैतिकता पर गंभीर सवाल खड़े कर रही है। यह न केवल एक व्यक्ति के साथ अन्याय है, बल्कि विभागीय गुटबाजी और सत्ता के दुरुपयोग का घिनौना उदाहरण भी है। हालाँकि इस मामले में दुसरे पक्ष और प्रबंधन से बातचीत का प्रयास किया गया लेकिन संपर्क नहीं हो सका.
विभाग की साख पर गहरा धक्का
यह मामला चिकित्सा शिक्षा विभाग की साख पर गहरा धक्का है। सरकार आदिवासी समुदायों को सशक्त बनाने की बात करती है, लेकिन उसी के विभाग के अधिकारी उनके अधिकारों का हनन कर रहे हैं। यह विभागीय भ्रष्टाचार और असंवेदनशीलता का जीवंत उदाहरण है।
आदिवासी समुदाय में रोष
डॉ. सुभाष के मामले ने आदिवासी समुदाय में गुस्से की लहर पैदा कर दी है। समुदाय के लोग इसे व्यक्तिगत लड़ाई नहीं, बल्कि पूरे आदिवासी समाज के सम्मान और अधिकारों की लड़ाई मान रहे हैं। समुदाय के नेताओं ने सरकार से तत्काल हस्तक्षेप की मांग की है।
सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी
सरकार और चिकित्सा शिक्षा विभाग को इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए। यह केवल डॉ. सुभाष सोनकेसरिया का मामला नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय के विश्वास और अधिकारों का सवाल है। अगर जल्दी न्याय नहीं मिला, तो यह मामला बड़े पैमाने पर आंदोलन का रूप ले सकता है।
सरकार और अधिकारियों की चुप्पी पर सवाल
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि अगर यह पद आदिवासी कोटे के नियमों के तहत भरना तय है, तो फिर सरकार और चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारी किस बात (चाशनी) का इंतजार कर रहे हैं? आखिर क्यों एक योग्य आदिवासी उम्मीदवार को उसका अधिकार देने में इतना वक़्त लग रहा है? क्या सरकार को अदालत के आदेश का पालन करने में भी हिचकिचाहट है, या फिर वरिष्ठ प्रोफेसरों का प्रभाव इतना मजबूत है कि अधिकारी निर्णय लेने से डर रहे हैं? सरकार की यह चुप्पी और देरी न केवल आदिवासी अधिकारों का हनन है, बल्कि यह दिखाता है कि न्यायिक व्यवस्था और प्रशासन के आदेशों की भी अनदेखी की जा रही है।