*आखातीज को नववर्ष के रूप में मनाता है आदिवासी समाज*
आदिवासी परंपरा एवं मान्यता के अनुसार आखातीज का चांद जब दिखाई देता है। तब से ही नव वर्ष की शुरुआत मानी जाती है। आदिवासी समाज की परंपरा, संस्कृति, दर्शन व जीवन मूल्य प्रकृति पर आधारित है। प्रकृति मे मौसम के अनुसार बदलाव के अनुसार ही आदिवासी समाज में तीज, त्यौहार व पर्व मनाए जाते हैं। मौसम के अनुसार वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं, मौसम के अनुसार गीत गाए जाते हैं। इसीलिए आदिवासी समाज की पहचान प्रकृति पूजक व प्रकृति रक्षक के रूप में होती है। जब दुनिया में घड़ी का आविष्कार नहीं हुआ तब आदिवासी समाज के लोग सूर्य और चांद की आसमान में स्थिति को देखकर समय का अनुमान लगा लेते थे। जब दुनिया में मौसम चक्र बारे में पूर्वानुमान लगाने संबंधी कोई यंत्र तंत्र नहीं बने थे। तब से आदिवासी समाज आसमान में आने वाले हैं बादलों के प्रकार से ही कितने महीने पश्चात कौन से समय और कहां पर बारिश हो सकती है यह अनुमान लगा लेता था। जंगलों में आने वाले फूलों,फलों व पत्तियों को देखकर यह अनुमान लगा लेते थे कि इस वर्ष कौन सी फसल अच्छे से होने वाली है अर्थात प्रकृति का अध्ययन इतनी सूक्ष्मता से आदिवासी समाज के लोग कर लेते थे। आदिवासी समाज का प्रकृति के साथ सानिध्य व संवादिता के कारण ही वह प्रकृति की भाषा समझता था। वह प्रकृति से उतना ही लेता था जितना कि उसकी आवश्यकता हैं। कभी प्रकृति को नुकसान पहुंचाने की भावना मन में आती ही नहीं थी। वह जल, जंगल, जमीन, हवा, चांद ,सूरज व आसमान आदि की पूजा करता हैं अर्थात यदि कोई किसी वस्तु पूजा करता है तो उसे नुकसान पहुंचाने की भावना मन में कभी नहीं आ सकती है। आदिवासी समाज के लोग आखातीज के चांद को देखकर नव वर्ष की शुरुआत मानते हैं। इस दिन घर परिवार के बड़े बूढ़े लोग जब चांद दिखाई देता है तब लोटे में पानी, हाथ में अनाज व करेंसी रुपैया जमीन पर रखकर पानी व अनाज प्रकृति को समर्पित करते हुए अच्छी फसल, सुख-शांति की कामना करते हैं। आदिवासी परंपरा अर्थात मूल परंपरा बचेगी तो दुनिया के हित में होगा।
आज के दिन से खेती का नवीन कार्य शुरू करते है। आदिवासी समाज के लोग इसी दिन से अपने हल की पूजा कर खेत जोतना शुरू करते है। तथा कई स्थानों पर तो अग्रिम बोवनी भी कर देते है। इस दिन आदिवासी समाज के लोग सुबह जल्दी उठते है तथा सात खचरे-कुटे के पूंजे जलाते है। जो रात्रि के समय में जलाएं जाते है। तथा इस दिन बाहर भोजन बनाया जाता है। साथ सामूहिक यज्ञ किया जाता है। आदिवासी हमेशा प्रकृति के नजदीक रहा है। प्रकृति के साथ~साथ सनातनी संस्कृति का उपासक है वह अपने प्रत्येक तीज त्यौहार पर भगवान की आराधना करता है। आदिवासी समाज और हिन्दू संस्कृति के तीज त्यौहार दोनो ही एक दूसरे से मिलते झूलते है। आदिवासी समाज बाबा गणेश, बाबा देव, बाबी माता, सावन माता, लालबाई, फूलबाई, कसूमोर देव, भोला ईश्वर, हडूमान ज्योदा वीर, राम लक्ष्मण, कहाजो, वगाजो जैसे देवी देवताओं की पूजा पाठ करता हैं आज के दिन विषेश रूप से घर के बाहर दाल पानिए का भोजन बनाया जाता है। जो सामूहिक एकता का परिचय भी है। अंचल में सभी लोग इस त्यौहार को बड़े धूम धाम से मनाते है।
✍️लेख:-निलेश कटारा(माध्यमिक शिक्षक)
ग्राम मदरानी, तहसील मेघनगर, जिला झाबुआ मप्र
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